कड़े मौसम कठिन हालात में उसको जवां देखा
वफ़ा वो फूल है जिसकी कभी ख़ुशबू नहीं जाती
हरिशंकर पाण्डेय'सुमित'
अबके सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड़कर कुल शहर में बरसात हुई
नीरज
अपना ग़म लेके कही और न जाया जाए
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए
निदा फ़ाज़ली
न कोई हमसफ़र होगा न कोई कारवां होगा
चले जाएंगे जब तन्हा न कोई पासबाॅ॑ होगा
फना हो जायेंगे फिर भी रहेगी रूह ये कायम
न जाने कौन सा फिर जिस्म इसका आशियां होगा
पासबाॅ॑--रक्षक
हरिशंकर पाण्डेय "सुमित"
इस जहाँ में प्यार महके जिंदगी बाकी रहे
ये दुआ मांगो दिलों में रोशनी बाकी रहे
देवमणि पाण्डेय
खफा है आज मगर कल गले लगाएगी
ज़िंदगी है जनाब फिर से मुस्कराएगी
हरिशंकर पाण्डेय "सुमित"
आँसू की क्या क़िस्मत है , बहने में बाधाएँ कितनी
बाहर चहल पहल हलचल है,भीतर बंद गुफाएं कितनी
शैल चतुर्वेदी
इस जहाँ से कब कोई बचकर गया
जो भी आया खा के कुछ पत्थर गया
राजेश रेड्डी
इस तरह कुछ आजकल अपना मुकद्दर हो गया
सर को चादर से ढंका तो पाँव बाहर हो गया
देवमणि पाण्डेय
उनके अंदर भी कहीं तू है, कहीं तू न गिरे
बस यही सोच के इन आँखों से आँसू न गिरे
कुंअर बेचैन
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बुलंदी मिल नहीं सकती फकत तकदीर के बल से
कड़े संघर्ष के छाले ही मंजिल से मिलाते हैं
अजब है यह नजारा जिंदगी का भी मेरे यारो
दिया है ज़ख्म जिसने अब वही मरहम लगाता है
बेज़ार हो गए थे ग़म-ए-ज़िन्दगी से हम
नज़र ए करम ने आपके जीना सिखा दिया
सुनहरे पल की खुशियों का बहुत है लौटना मुश्किल
मगर इस दिल ने अब तक आस का दामन नहीं छोड़ा
मुझे रुसवा करो बेशक़ यहाँ सारे जमाने में
मगर इल्ज़ाम तुम पर यूँ न आ जाए फ़साने में
मेरी ख़्वाहिस का वो चमन भले ही दूर सही,
मेरे ख़्वाबों के रगो में बड़ी रवानी है
मोहब्बत को, इबादत की तरह जो याद रखते हैं
ख़ुदा की रहमतों से वे सदा आबाद रहते हैं
कभी मजबूरियाँ भी रोकती हैं पेशकदमी से
मगर जो प्यार सच्चा है वो हरगिज मर नहीं सकता
मुझसे बिछड़े वो मुलाकात कभी हो न सकी
एक हसरत थी मगर बात कभी हो न सकी
इश्क़ में दर्द भी ख़ुशियों पे फ़िदा होता है
ये ऐसी क़ैद है जिसमे रिहाई हो नहीं सकती।
कुछ तज़ुर्बे ने बचाया, और मालिक का रहम।
दोस्तों की थी इनायत, टूट कर सम्हले हैं हम।
मचाओ धूम,हर दिल में मुकाम हो जाए !
उठे कदम तो बुलंदी तुम्हे सलाम करे!!
माँ के हाँथों की रोटियों में बड़ी लज्ज़त थी
किसी निवाले में अब वह मज़ा नहीं आता!
परायी पीर देख कर जो मुस्कराते हैं
ग़म सताता है तो बेबस से नजर आते हैं
बुझ चुकी है आग फिर भी उठ रहा है अब धुआँ
कुछ छिपी चिनगारियों को भी बुझाना चाहिए
पीर जब दिल की उभर कर शायरी में आएगी
एक संजीदा ग़ज़ल तहरीर में ढल जाएगी
हरिशंकर पाण्डेय 'सुमित'
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लगादी जिंदगी अपनी
नया घर आ बसाने में
जिये औलाद की ख़ातिर
उन्हें काबिल बनाने में
कहूँ क्या पीर दिल का
अब बुजुर्गों का जमाने मे
किया लख्त ए ज़िगर ने
आज बेघर आशियाने में
अनिल कुमार 'राही'
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ग़ज़ल
ज़मी से आसमाँ तक आ गए हैं,
कहाँ थे हम कहाँ तक आ गए हैं।
हज़ारों कोशिशों के बाद अब हम,
तुम्हारी दास्ताँ तक आ गए हैं।
रुके थे तब बदन ओढे हुए थे,
चले तो जिस्मो-जाँ तक आ गए हैं।
समंदर पार से उड़ कर परिंदे,
हमारे आशियाँ तक आ गए है।
जिन्हें पाला था मिल कर दुश्मनों ने,
वो शिक़वे भी ज़ुबाँ तक आ गए हैं।
किसी तितली से वादा कर लिया था,
बहारों से ख़िजाँ तक आ गए हैं
जहाँ मिलना हमारा तय हुआ था,
बिछड़ कर भी वहाँ तक आ गए हैं।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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ग़ज़ल
आस्ताने पे मारा गया ,
मैं ठिकाने पे मारा गया.
दिल दिखाना अलग बात थी ,
दिल लगाने पे मारा गया.
सर कटाने पे ज़िंदा रहा ,
सर झुकाने पे मारा गया .
था तो मयकश नहीं मैं मगर,
डगमगाने पे मारा गया.
मिल गयी आड़ तुम बच गए ,
मैं निशाने पे मारा गया.
कर लिया था यकीं जिस पे वो,
आज़माने पे मारा गया.
मैं था ज़िंदा भटकते हुए,
घर बसाने पे मारा गया.
उसके इल्ज़ाम सहते हुए,
एक ताने पे मारा गया..
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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