ग़ज़ल
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आ गया बासी कढ़ी में उबाल क्या करता
दर्द को उसने बताया दलाल क्या करता
फ़र्ज़ की राह में दम घोंट दिया ख़ुशियाँ का
सिवाय इसके बताओ हलाल क्या करता
दिल का हर दर्द है हमदर्द धड़कनों की तरह
बेवफ़ा ज़िन्दगी है बाकमाल क्या करता
'जहाँ' का दर्द है दामन में, फ़र्ज़ काँधों पे
ख़ुद अपने आप से ख़ुद का मलाल क्या करता
फ़रेब लगता है, दिल को कुरेदना फिर भी
ख़ुदी में खो गया ख़ादिम ख़याल क्या करता
कितना लाचार है अकालग्रस्त इक किसान
फावड़ा देख के, देखे कुदाल क्या करता
इक अपाहिज की तरह इंक़लाब बैठा है
बुझी पड़ी हुई ले के मशाल क्या करता
लहू निचोड़ के दिल फेंक दिया ज़ालिम ने
फिर भी आँखों में न आया उबाल क्या करता
जवाब मिलता भी कैसे ज़मीर को "आलम"
झूट के सामने सच से सवाल क्या करता
- लालजी "आलम" हथगांवी
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शुभ दिवस मित्रों 🌹🌹
क़ुरान ए पाक़ की आयत़ ये गीता ज्ञान है भारत,
सबाब ए नेक कर्मों का मिला वरदान है भारत,
भजन मंदिर के मेरे हैं अजान ए मस्जिदें मेरी,
जिसे जो चाहे वो समझे मेरी तो जान है भारत,
मुहब्बत ही धरम अपना दिवारें मजहबी तोडो,
अहिंसा, शांति की सदभावना, ईमान है भारत,
बचा कर दोस्तों रखना,इसे जालिम लुटेरों से,
हजारों लाडलों का ये अमर बलिदान है भारत
शहर की झिलमिलाती रोशनी में ढूँढते हो क्या,
अंधेरी गाँव की गलियाँ, भरा खलिहान है भारत
अगर धृतराष्ट्र हो अंधा,तो खिंचता चीर नारी का,
इन्हीं दुःस्सानों से आजकल हलकान है भारत,
दुआ है रब से "मीरा" की, रहे आबाद ये गुलशन,
ये वंदे मातरम,जन मन का सुन्दर गान है भारत,
©कश्मीरा त्रिपाठी,
10/8/2018
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ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे....
ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे
ख़तावार समझेगी दुनिया तुझे
अब इतनी भी ज़्यादा सफ़ाई न दे
हँसो आज इतना कि इस शोर में
सदा सिसकियों की सुनाई न दे
अभी तो बदन में लहू है बहुत
कलम छीन ले रोशनाई न दे
मुझे अपनी चादर से यूँ ढाँप लो
ज़मीं आसमाँ कुछ दिखाई न दे
ग़ुलामी को बरकत समझने लगें
असीरों को ऐसी रिहाई न दे
मुझे ऐसी जन्नत नहीं चाहिए
जहाँ से मदीना दिखाई न दे
मैं अश्कों से नाम-ए-मुहम्मद लिखूँ
क़लम छीन ले रोशनाई न दे
ख़ुदा ऐसे इरफ़ान का नाम है
रहे सामने और दिखाई न दे
बशीर बद्र
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लफ़्ज़ों के ये नगीने तो निकले कमाल के
ग़ज़लों ने ख़ुद पहन लिए ज़ेवर ख़याल के
ऐसा न हो गुनाह की दलदल में जा फँसूँ
ऐ मेरी आरज़ू मुझे ले चल सँभाल के
पिछले जनम की गाढ़ी कमाई है ज़िंदगी
सौदा जो करना करना बहुत देख-भाल के
मौसम हैं दो ही इश्क़ के सूरत कोई भी हो
हैं इस के पास आइने हिज्र-ओ-विसाल के
अब क्या है अर्थ-हीन सी पुस्तक है ज़िंदगी
जीवन से ले गया वो कई दिन निकाल के
यूँ ज़िंदगी से कटता रहा जुड़ता भी रहा
बच्चा खिलाए जैसे कोई माँ उछाल के
ये ताज ये अजंता एलोरा के शाहकार
अफ़्साने लग रहे हैं उरूज-ओ-ज़वाल के
कृष्ण बिहारी "नूर"
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हो गई है पीर........
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग,लेकिन आग जलनी चाहिए।
दुष्यंत कुमार
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मुहाजिर हैं मगर........
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं
कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बांधी थी,
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं
किसी की आरज़ू के पांवों में ज़ंजीर डाली थी,
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं
पकाकर रोटियां रखती थी मां जिसमें सलीक़े से,
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं
हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है,
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहां जब थे,
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं
हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं,
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं
गले मिलती हुई नदियां गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नजारा छोड़ आए हैं
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की,
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं
मुनव्वर राना
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एक ताजा तरीन ग़ज़ल--------------
किया है प्यार सलीक़े से निभाने के लिये
किसी के दर्द को बस अपना बनाने के लिये
मिला न कोई भी रहबर मुझे अब तक ऐसा
जो रोक पाये ग़लत राह पे जाने के लिये
किसी की चाह में दिल बेक़रार रहता है
मचल रहा है ये दिल उसको ही पाने के लिये
मिला है ज्ञान निराला जो आप को केवल
तो बाँटिये उसे सोते को जगाने के लिये
इस तरह जाया क्यों करते हैं अपनी ताक़त को
एक मज़लूम को बेवजह सताने के लिये
लुट रही होती हों राहों में बेटियाँ जब भी
कोई आता ही नहीं उनको बचाने के लिये
किसी से नज़रें मिलाऊँ तो किस तरह "राही"
कोई तो आता नहीं दिल से लगाने के लिये
"राही"भोजपुरी,जबलपुर मध्य प्रदेश।
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जिसने किए हैं फूल निछावर......
जिसने किए हैं फूल, निछावर कभी कभी
आए हैं उस की सम्त से, पत्थर कभी कभी
हम जिस के हो गए वो, हमारा न हो सका
यूँ भी हुआ हिसाब, बराबर कभी कभी
आती है धार उन के, करम से शुऊर में
दुश्मन मिले हैं दोस्त से, बेहतर कभी कभी
मंज़िल की जुस्तुजू में, जिसे छोड़ आए थे
आता है याद क्यूँ वही, मंज़र कभी कभी
माना ये ज़िंदगी है, फ़रेबों का सिलसिला
देखो किसी फ़रेब के, जौहर कभी कभी
दिल की जो बात थी वो रही, दिल में ऐ "सुरूर"
खोले हैं गरचे शौक़ के, दफ़्तर कभी कभी
आल-ए-अहमद "सूरूर"
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एक नयी ग़ज़ल
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जब खिली इक कली तो कही है ग़ज़ल
उससे आंखें मिलीं तो कही है ग़ज़ल
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मन मेरा हो गया संदली....... संदली
दिल मची खलबली तो कही है ग़ज़ल
**
रात मधु चांदनी में नहा कर खिली
दिन लगे मखमली तो कही है ग़ज़ल
**
वो मुझे देख कर हो गयी फागुनी
रच महावर चली तो कही है ग़ज़ल
**
उसके चर्चे से चर्चित जलज हो गये
वो हुई बावली तो कही है ग़ज़ल
( श्री रामसूरत वर्मा "जलज")
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ख़ुद्दारियों के ख़ून को अर्ज़ां न कर सके
हम अपने जौहरों को नुमायां न कर सके
हो कर ख़राब-ए-मय तेरे ग़म तो भुला दिए
लेकिन ग़म-ए-हयात का दरमां न कर सके
टूटा तिलिस्म-ए-अहद-ए-मोहब्बत कुछ इस तरह
फिर आरजू की शम्अ फ़िरोज़ां न कर सके
हर शय क़रीब आ के कशिश अपनी खो गई
वो भी इलाज-ए-शौक़-ए-गुरेज़ां न कर सके
किस दर्जा दिल-शिकन थे मोहब्बत के हादसे
हम ज़िंदगी में फिर कोई अरमां न कर सके
मायूसियों ने छीन लिए दिल के वलवले
वो भी नशात-ए-रूह का सामां न कर सके
साहिर लुधियानवी
"****************************
लज़्ज़त-ए-हयात तो कुछ तल्ख़ियाँ भी हैं
हँसने के साथ साथ यहाँ सिसकियाँ भी हैं
कहते हैं लोग तुझ को गुल-ए-बदनसीब भी
सुनती हूँ जुस्तज़ू में तेरी तितलियाँ भी हैं
आँखों के रास्ते से निकलते हैं रंज़-ओ-ग़म
अच्छा है इस मकान में कुछ खिड़कियाँ भी हैं
तूफान भी शबाब पे आने लगा उधर
बेताब डूबने को इधर कश्तियाँ भी हैं
छेड़ा न कीजिए उसे वो ऐसी शम'अ है
दामन बचा के जिस से चली आँधियाँ भी हैं
आतिश फ़िशां से दूर रहा कर ज़रा 'सुमन'
सूरज के पास देख कहीं बस्तियाँ भी हैं
सुमन धिंगरा दुग्गल
*********************************
आप जिनके क़रीब होते हैं.....
आप जिनके क़रीब होते हैं
वो बड़े ख़ुश-नसीब होते हैं
जब तबीअ'त किसी पर आती है
मौत के दिन क़रीब होते हैं
मुझ से मिलना फिर आप का मिलना
आप किस को नसीब होते हैं
ज़ुल्म सह कर जो उफ़ नहीं करते
उन के दिल भी अजीब होते हैं
इश्क़ में और कुछ नहीं मिलता
सैकड़ों ग़म नसीब होते हैं
'नूह' की क़द्र कोई क्या जाने
कहीं ऐसे अदीब होते हैं
नूह नारवी
*****************************
ग़ज़ल
हैं लज़्ज़त-ए-हयात तो कुछ तल्ख़ियाँ भी हैं
हँसने के साथ साथ यहाँ सिसकियाँ भी हैं
कहते हैं लोग तुझ को गुल-ए-बदनसीब भी
सुनती हूँ जुस्तज़ू में तेरी तितलियाँ भी हैं
आँखों के रास्ते से निकलते हैं रंज़-ओ-ग़म
अच्छा है इस मकान में कुछ खिड़कियाँ भी हैं
तूफान भी शबाब में आने लगा उधर
बेताब डूबने को इधर कश्तियाँ भी हैं
छेड़ा न कीजिए उसे वो ऐसी शम'अ है
दामन बचा के जिस से चली आँधियाँ भी हैं
आतिश फ़िशां से दूर रहा कर ज़रा 'सुमन'
सूरज के पास देख कहीं बस्तियाँ भी हैं
सुमन धींगरा 'दुग्गल'
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,2122 1212 22
कौन कहता है बेख़बर आया ।
जो परिंदों का पर कतर आया ।।
हिज्र की दास्तान को सुनकर ।
दर्दे दिल आज फिर उभर आया ।।
गयी निगाह जहां तक यारो ।
उसका जलवा मुझे नजर आया ।।
लोग कहने लगे जवां उसको ।
दिल चुराने का जब हुनर आया ।।
शह्र में हो रहा यही चर्चा ।
हुस्न कोई शबाब पर आया ।।
उस दरीचे पे नजर ठहरी है ।
जब भी रस्ते में तेरा घर आया ।।
इश्क़ उसका करो न अब खारिज़ ।
तुम से मिलने जो हर पहर आया ।।
चाहतों पर हुआ यकीन हमें ।
बाम पर चाँद जब उतर आया ।।
जिंदगी की किताब में उसकी।
जिक्र मेरा भी मुख़्तसर आया ।।
इक तबस्सुम ने कर दिया घायल ।
याद मंजर वो उम्र भर आया ।।
आप कैसा गुनाह कर बैठे ।
सारा इल्ज़ाम मेरे सर आया ।।
-डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
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जुदा होकर भी मैं नज़दीकियाँ महसूस करता हूँ,
बिछड़ता हूँ तो अपनी ग़लतियाँ महसूस करता हूँ.
अभी भी सूखने से बच गया है क्या कोई दरिया,
बदन में क्यों तड़पती मछलियाँ महसूस करता हूँ.
वक़ालत यूँ तो करता हूँ मैं उड़ते हर परिंदे की,
मगर पांवों में अपने बेड़ियाँ महसूस करता हूँ.
कभी एहसास होता है कि हैं पुरवाइयां मुझमें,
कभी धूआं उगलती चिमनियाँ महसूस करता हूँ.
दिलों की बात मैं जब भी लिखा करता हूँ काग़ज़ पर,
क़लम पर मैं किसी की उंगलियाँ महसूस करता हूँ.
सभी का मेरे ही अहसास से रिश्ता है वरना तो,
सभी की मैं ही क्यों मजबूरियाँ महसूस करता हूँ.
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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सुर्खे चमन- ए- दिल यूं नजारे बिखर गये|
जितने खिले थे फूल वो सारे बिखर गये|
+
मौजें उफान पर थीं बगावत में इस तरह,
दरिया ए दिल के सख्त किनारे बिखर गये|
++
तुमने किया उजाला तो बेशक जमीन पर,
लेकिन एे आफताब सितारे बिखर गये|
+++
खामोशियों ने अपनी सताया हमें बहुत,
नादानियों से उनकी इशारे बिखर गये|
++++
वो तो मगन हैं आज नजाकत ओ शोख में,
उनको पता न ख्वाब हमारे बिखर गये|
+++++
कैसे बुझाएं प्यास गमों की बता 'मनुज',
आँखों से गिरके अश्क भी खारे बिखर गये|
मनोज राठौर "मनुज"
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आप की याद आती रही.....
आप की याद आती रही रात भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर
गाह जलती हुई गाह बुझती हुई
शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात भर
कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन
कोई तस्बीर गाती रही रात भर
फिर सबा साया-ए-शाख़-ए-गुल के तले
कोई क़िस्सा सुनाती रही रात भर
जो न आया उसे कोई ज़ंजीर ए दर
हर सदा पर बुलाती रही रात भर
एक उम्मीद से दिल बहलता रहा
इक तमन्ना सताती रही रात भर
फैज़ अहमद फैज़
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एक शफ़ी भाई की शानदार ग़ज़ल.....
आंधियों में दिये हम जलाते रहे,
ज़र्फ़ को इस तरह आज़माते रहे!
दाद मिलती रही मेरे हर शेर पे,
दर्द अपने उन्हें हम सुनाते रहे!
ज़िन्दगी इक कहानी अगर है तो हम,
झूठा किरदार इसमें निभाते रहे!
ऐ मुहब्बत यही. तेरा दस्तूर है,
ग़म भी तेरे गले से लगाते रहे!
शेर. कितने ही मंसूब ग़म को किये,
ऐ ग़ज़ल तेरा सदका लुटाते रहे!
जब भी तन्हा हुये मशगला था यही,
ग़म के किस्से ख़ुदी को सुनाते रहे!
ये भी करना पड़ा ज़िन्दगी में 'शफी',
दर्द पीते रहे मुस्कुराते...... रहे!
शफ़ी ताजदार
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एक ग़ज़ल के चंद शेर----------------
दिल पूछे मैं नग्न नाच पर किस स्याही से प्यार लिखूँ
मासूमों से हुई ज़्यादती पर कैसे श्रृंगार लिखूँ।
जिसने मेरी नेक नियति पर प्रश्न उठाये बारंबार
उसकी बद नीयति पर आख़िर कब तक मैं आभार लिखूँ
किया भरोसा पल पल मुझपे प्यार दिया भरपूर मुझे
ऐसे इंसां को बतलाओ कैसे मैं दुत्कार लिखूँ।।।।।।
सागर से उठती लहरों की भाषा कौन समझ पाया
उनकी उस गर्जन को क्या मैं नागिन की फुफकार लिखूँ
गाँवों में कितने मुफ़लिस हैं जहाँ नहीं जलते चूल्हे
उसे भूख की ज्वाला या फिर भट्ठी का अंगार लिखूँ
जब से होश संभाला मैंने दमनकारियों को देखा
ऐसी फ़ितरत वालों को मैं क्यों सादर सत्कार लिखूँ
दुनिया को तबाह करने की जिसने ठानी है "राही"
दिल कहता है उस पे अब तो चुभते कुछ अशआर लिखूँ
"राही"भोजपुरी,जबलपुर मध्य प्रदेश।
****************************************"
मौत से ताउम्र यूॅ॑ भी........
मौत से ताउम्र यूँ भी मशवरा करते रहे,
ज़िन्दगी हारे न बस ये ही दुआ करते रहे.
इस तरह से इश्क़ में महबूब से रिश्ता रखा,
दे रहा था वो मुआफ़ी हम ख़ता करते रहे.
मयक़दे ये पूछते ही रह गए आख़िर तलक़,
कौनसा आख़िर बताओ हम नशा करते रहे.
सूखे पत्तों की तरह जलते रहे बारिश में हम,
आग थी बेचैन लेकिन हम हवा करते रहे.
ढूँढता हममें रहा वो हम कहाँ उसमे रहे,
वो कहाँ हममें छिपा है हम पता करते रहे.
बेख़ुदी हम पे भी यारो इस क़दर छाई रही,
या ख़ुदा हम या ख़ुदा बस या ख़ुदा करते रहे.
इश्क़ में होकर जुदा मरने की ज़िद को छोड़ कर,
हम न जाने किस जनम का हक अदा करते रहे .
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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तेरी चाहत में तेरी अदा बन गया...
तेरी चाहत में तेरी अदा बन गया,
ख़ुद में रह कर मैं तेरी रज़ा बन गया.
मेरी फ़ितरत में थी बेवफ़ाई मगर,
तूने छुआ तो बु-ए-वफ़ा बन गया.
मेरी दीवानगी ने हदें पूछ लीं,
मैं मज़ारों पे जलता दिया बन गया.
नाम मेरा मुक़म्मल हुआ उस घड़ी,
तेरे घर का मैं जब रास्ता बन गया.
बेख़ुदी में बढ़ीं ऐसी नज़दीकियाँ,
मेरी तन्हाई का तू ख़ुदा बन गया.
बुत परस्ती उसे यूँ भी रास आ गई,
पत्थरों में रहा देवता बन गया.
ना मसीहा बना, ना फ़रिश्ता बना,
इश्क़ में तेरे जो बन सका बन गया.
उम्र भर साँस मिट्टी के घर में रहीं,
ये बदन मेरा आख़िर हवा बन गया.
बू ए वफ़ा =वफ़ा की खुशबू
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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ग़ज़ल
ज़ख्मी आहें रोने लगी हैं,
किसकी ख़ताएं रोने लगी हैं।
डरे हुए हैं मंदिर मस्जिद,
और दुआएँ रोने लगी हैं।
सुलग रहा है फिर से मौसम ,
फिर से हवाएं रोने लगी हैं।
सिसक रहे हैं सूखे मंज़र,
ख़ुश्क निग़ाहें रोने लगी हैं।
रोकर चुप है वारदात तो,
अब अफ़वाहें रोने लगी हैं।
ख़फ़ा हुई है कहीं पे उल्फ़त ,
कहीं वफ़ाएँ रोने लगी हैं।
दिल बहलाने के अब ख़ातिर,
शोक-सभाएं रोने लगी हैं।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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1222 1222 1222 1222
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ग़ज़ल
कम्बख्त दिल
कम्बख्त दिल की सारी बातें कुबूल की
ज़िंदगी में मैने कैसी ये भूल की
छोड कर दुनियाँ तुम्हारे पास आए थे
लाँघ कर सीमाएँ सब अपने उसूल की
खाब ओ ख्याल सब यूँ बेदखल हुए
जैसे छीन ली हों बहारें किसी ने फूल की
कई बार सोचता हूँ अब मैं इत्मिनान से
निसार तुम पे ज़िंदगी हमने फिजूल की
समझ के रेत राहों का ठोकर मार दी , गगन
अब क्या हसति है सोचिए उडती हुई धूल की
मिलकर के तल्खियों पर, आओ फतह कर लें
छोडो सभी शिकवे , कि आओ सुलह कर लें
सियासत तो सियासत है , नफ़रत ही परोसेगी
कर तौबा सियासत से, खत्म ये कलह कर लें
राम पौंछ ले आकर के , रहमान के आँसुं
हर श्याम हँसीं , और सुहानी हर सुबह कर लें
भँवरे जहाँ डोलें , और जहाँ फूल मुस्काएँ
नई इस बागबानी की , सुरक्षित जगह कर लें
भारत कहीं फिर से , महाभारत न हो जाए
चालों पर शकुनि की,हम एक-एक निगह करलें
निवाले रोटी के सबको , और सबका घरोंदा हो
गिरे दीवार गुरबत की, तय कुछ इस तरह करलें
जिस्म मिट्टी ही है आखिर, इसे मिट्टी में मिलना है
बनें मिसाल दुनियाँ में , कोई ऐसी वजह कर लें
लाख ढूँढते रहिये , मगर फिर ये न मिलेगा
चलो महफूज,गगन ,की, हम एक-एक शरह करलें
कवि जे. एस. गगन
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............ ग़ज़ल कोई
तरन्नुम बन ज़ुबाँ से जब कभी निकली ग़ज़ल कोई ।
सुनाता ही रहा मुझको मुहब्बत की ग़ज़ल कोई ।।
बहुत चर्चे में है वो आजकल मफ़हूम को लेकर ।
जवां होने लगी फिर से पुरानी सी ग़ज़ल कोई ।।
कभी यूँ मुस्कुरा देना कभी ग़मगीन हो जाना ।
हर इक इंसान को बेशक़ असर करती ग़ज़ल कोई ।।
उन्हें देखा जो उसने और बाकी शेर कह डाला ।
हुई है बाद मुद्दत के यहाँ पूरी ग़ज़ल कोई ।।
सुना देने की बेचैनी दिखी है उसके चेहरे पर ।
किसी की याद में जो रात भर लिक्खी ग़ज़ल कोई ।।
हजारों लफ्ज़ भी कमतर लगे क्या क्या लिखूँ तुम पर ।
तुम्हारे हुस्न की तारीफ़ में बहकी ग़ज़ल कोई ।।
यहाँ दीवानगी की हद से गुज़रा है ज़माना तब ।
हमारे साज़ पर जब जब तेरी सजती ग़ज़ल कोई ।।
अरुजी से कहा मैंने है क्वाफी बह्र क्या सब कुछ ।
जिग़र का खून भी लगता है तब ढ़लती ग़ज़ल कोई ।।
डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
*************************************"""
अंदाज़ ए ग़ज़ल
सब कहते हैं नया लिखूँगा,
मैं कहता हूँ जुदा लिखूँगा।
जब वो मेरा हो जाएगा
उसको अपना ख़ुदा लिखूँगा।
गल तो गया उल्फ़त का काग़ज़,
फिर भी उस पर वफ़ा लिखूँगा।
अगर मुक़द्दर लिखना पड़ा तो,
बस मैं उसकी रज़ा लिखूँगा।
क़ासिद भी अब जान चुका है,
ख़त पे किसका पता लिखूँगा।
लिखना तू भी मेरी ख़ताएँ,
मैं भी अपनी ख़ता लिखूँगा।
कितना भी हो बुरा वक़्त मैं,
ग़ज़ल में हरफ़े दुआ लिखूँगा।
हर्फ़े-दुआ =दुआ के शब्द
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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ये ग़ज़ल ख़ूबसूरत बसीरतों के हवाले....
़़़़़़़़़़ तरही ग़ज़ल ़़़़़़़़़़
ग़ज़ल तुझसे मुनव्वर हो गये हैं,
मिरे ग़म भी सुख़नवर हो गये हैं!
मिरे अहसास में चुभने लगे हैं,
तिरे अशआर नशतर हो गये हैं!
मज़ा आने लगा है ज़िन्दगी में,
मुझे भी ग़म मयस्सर हो गये हैं!
बहाना मुफलिसी तू ज़िंदगी भर,
ये आंसू अब मुकद्दर हो गये हैं!
निभाना हो गया है कितना मुश्किल,
ये रिश्ते यूं भी ख़ंजर हो गये हैं!
पिघल जाते थे तेरे आंसुओं से,
मगर हम कब के पत्थर हो गये हैं!
मैं डूबा जा रहा गहराईयों... में,
ये ग़म भी तो समन्दर हो गये हैं!
गला घोटा है कितनी हसरतों का,
'शफी' हम भी सितमगर हो गये हैं!
शफ़ी ताजदार
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ग़ज़ल
2122 2122 2122 212
भूँख से मरता रहा सारा ज़माना इक तरफ़ ।
और वह गिनता रहा अपना ख़ज़ाना इक तरफ़।।
बस्तियों को आग से जब भी बचाने मैं चला ।
जल गया मेरा मुकम्मल आशियाना इक तरफ ।।
कुछ नज़ाक़त कुछ मुहब्बत और कुछ रुस्वाइयाँ।
वह बनाता ही रहा दिल में ठिकाना इक तरफ ।।
ग्रन्थ फीके पड़ गए फीका लगा सारा सुखन ।
हो गया मशहूर जब तेरा फ़साना इक तरफ ।।
मिन्नतें करते रहे हम वस्ल की ख़ातिर मगर ।
और तुम करते रहे मुमक़िन बहाना इक तरफ़ ।।
हुस्न का जलवा तेरा बेइन्तिहाँ कायम रहा ।
और वह अंदाज भी था क़ातिलाना इक तरफ़ ।।
बात जब मतलब पे आई हो गए हैरान हम ।
रख दिया गिरवी कोई रिश्ता पुराना इक तरफ़ ।।
बेसबब सावन जला भादों जला बरसात में ।
रह गया मौसम अधूरा आशिकाना इक तरफ ।।
जब से मेरी मुफ़लिसी के दौर से वाक़िफ़ हैं वो ।
खूब दिलपर लग रहा उनका निशाना इक तरफ़।।
हक़ पे हमला है सियासत छीन लेगी रोटियां ।
चाल कोई चल रहा है शातिराना इक तरफ़ ।।
बे असर होने लगे हैं आपके जुमले हुजूऱ ।
आदमी भी हो रहा है अब सयाना इक तरफ़ ।।
श्री नवीन मणि त्रिपाठी
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चलो फिर लौटकर चलते हैं उस ज़माने में,
हक़ीक़त जब पला करती थी हर फसाने में।
मिला करती थीं रोटियाँ मग़र पसीने की,
गुज़र जाती थी उम्र झोपड़े बनाने में।
वहीं मिलती हैं कोठियाँ खड़ी करीने से,
मिटी गुर्बत जहाँ ईमान को बचाने में।
सजे थे सब जहाँ चाहत के तर नगीनों से,
वहीं मिटती हैं चाहतें फ़रेबखाने में।
लगा करते थे ग़ैर भी जहाँ पे अपनों से,
वहीं अपनों को सगे भी लगे भुलाने में।
(गोपाल शरण सिंह)
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ग़ज़ल (ज़िन्दगी)
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साॅ॑स जब तक चल रही, मधुमास है यह ज़िन्दगी ।।
रुक गई जब दिल की धड़कन लाश है यह ज़िन्दगी ।।(1)
ताकते आकाश नित नित, भोर से उठ साँझ तक,
इक बूँद स्वाती नीर जैसी प्यास है यह ज़िन्दगी ।।(2)
इक गन्ध की अन्धी ललक में भागता वन वन फिरे,
उस नाभि कुण्डल हित हिरण की आस है यह ज़िन्दगी ।।(3)
इक साँस की गठरी लिए सब खोजते हैं फिर रहे,
अति दूर है यह ज़िन्दगी अति पास है यह ज़िन्दगी ।।(4)
चहुँ ओर आँधी द्वन्द की पर दीप जलता रह गया,
निज कर्म पथ का इक अडिग विश्वास है यह ज़िन्दगी ।।(5)
कुछ तो सुहाने स्वप्न बाँधे कुछ अनोखी चाहतें,
बस एक पल के मिलन का अहसास है यह ज़िन्दगी ।।(6)
आशा लिए हिय बीच शबरी,पथ बुहारे रात दिन,
गृह त्याग निकसे राम का वनवास है यह ज़िन्दगी ।।(7)
बिष पान करके पा गई निज,श्याम को इक बावरी,
तुलसी कबीरा तो कभी रैदास है यह ज़िन्दगी ।।(8)
बन वीतरागी कष्ट समझे इस जगत की रीति का,
सब मोह माया भूल जा संन्यास है यह ज़िन्दगी ।।(9)
चल खोल अपनें पंख उड़ जा नाप ले इस व्योम को,
रख बोध अपनें कर्म पर आकाश है ये ज़िन्दगी ।।(10)
दिन चार जी ले चैन से यह ज़िन्दगी है इक जुआ,
कवि "राज" कहता एक पत्ता ताश है यह ज़िन्दगी ।।(11)
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डॉ. राज बुन्देली (मुम्बई)
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ताजी ग़ज़ल
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वो मेरी मुहब्बत को चुराने में लगे हैं।
आँखों में उन्हें हम भी बसाने में लगे हैं।
बेदर्द हवा है जो बुझाने पे तुली है,
हम जो चराग कब से जलाने में लगे हैं।
खुशियां बटोरने में तुझे पल नहीं लगे,
बरसों मुझे तो अश्क सुखाने में लगे हैं।
इनसे भी कुछ उमीद मेरा क्या करे वतन,
तस्वीर स्वयं की जो सजाने में लगे हैं।
नफरत के बाँध लोग बनाने में व्यस्त हैं,
हम प्यार के दरिया को बहाने में लगे हैं।
जिनके दरस के वास्ते प्यासी निगाह है,
वो मुझसे नजर अपनी बचाने में लगे हैं।
कैसे उन्हें शरीफ का दर्जा भी दे कोई,
परदे जो आबरू के उठाने में लगे हैं।
शिवनारायण शिव
13-10-18
रावर्ट्सगंज , सोनभद्र
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नमस्कार दोस्तों 🌷🙏🌷
बाद ए सबा ग्रुप से सम्मानित गज़ल,,, सादर 🙏
गजब का नूर है छाया कहाँ से,?
जमीँ पर चाँद उग आया कहाँ से,?
कभी सोचा है भौंरे की तरन्नुम,
कशिश वो जादुई लाया कहाँ से?
किताबों में पढा था जो फसाना,
हमारे साथ दोहराया,,,, कहाँ से,?
छुपाया था कई पर्दों में दिल को,
बताओ तुमने धडकाया कहाँ से?
बहुत भोली सी दो मासूम आँखें,
जहाँ सारा सिमट आया कहाँ से,?
तपिश बरसा रहे इस आसमाँ पर,
बरसता अब्र ये आया कहाँ से?
दुआएँ लग गयीं होंगी किसी की
दवा में ये असर आया कहाँ से?
सदाएँ सुन के इक प्यासी नदी की,
समंदर चल के खुद आया कहाँ से?
जिसे भूले हुए सदियाँ हुईं हैं,
ख़यालों में चला आया कहाँ से?
बनाया रूह का साथी जो तुमको,
ख़ुदा ने हमको मिलवाया कहाँ से?
सिमट के खो गयी बाहों में"मीरा"
मुकद्दर ने रहम खाया कहाँ से?
©कश्मीरा त्रिपाठी,
22/10/2018.
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सुरेंद्र चतुर्वेदी जी की ग़ज़ल
हर ख़ुशी लापता हो चुकी है,
ज़िन्दगी बेवफ़ा हो चुकी है।
साथ ऐसी लगी बदनसीबी
हर दुआ बददुआ हो चुकी है।
रात के साथ कपडे बदल कर,
रौशनी बेहया हो चुकी है।
थी जहां याद की इक हवेली,
आम वो रास्ता हो चुकी है।
हो रही है जवाँ ज़िम्मेदारी,
आशकी अलविदा हो चुकी है।
जाम पीते हुए बेख़ुदी का,
उम्र ख़ुद मयक़दा हो चुकी है।
तुम हो मेरे मुझे बदगुमानी ,
जाने कितनी दफ़ा हो चुकी है।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
चित्र=कुंवर राजेन्द्र सिंह राजपूत
लाइक पेज को देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें,
https://www.facebook.com/pages/Surendra-Chaturvedi/1432812456952945?ref=hl
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ताज़ी ग़ज़ल
क़ाफ़ले के साथ या तनहा सफर हो,कुछ तो हो
हों कहीं मेहमान या फिर अपना घर हो,कुछ तो हो
हादिसे की थी बहुत उम्मीद सारे रास्ते
रहज़नी हो, रहबरी हो, हो मगर हो ,कुछ तो हो
हाथ खाली लौटना मुश्किल तुम्हारे द्वार से
बद्दुआ दे या दुआ में ही असर हो, कुछ तो हो
क़ाफ़ला - सालार बनने की तमन्ना है उसे
या उसे मंज़िल पता हो, राहबर हो कुछ तो हो
बरगदों की छांव में भी धूप लगती है बहुत
हो जो क़द्दाबर अगर या बा-समर हो ,कुछ तो हो
ख़त्म रिश्ते कर दिये, अच्छा किया जो भी किया
या तो मैं खुलकर हसूं, या चश्मेतर हो कुछ तो हो
तेरे क़द से मेल खाती ही नहीं चादर 'स्वरूप'
या तो चादर तंग,या क़द मौतबर हो, कुछ तो हो
किशन स्वरूप
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*****ग़ज़ल****"
जो रखी सीने में कैसी आग है बाबा
लब पे कोयल और दिल में नाग है बाबा
भूख से बेसुध पड़ीं आँतों से पूछो तो
क्या दिवाली और क्या ये फाग है बाबा
है सिकन्दर वो जो सुर में गा सके इसको
वरना जीवन बेसुरा इक राग है बाबा
खुशबुओं को मैंने ओढ़ा और बिछाया है
ये वतन उपवन है मेरा बाग़ है बाबा
मोम का लेकर बदन हमसे नहीं मिलना
जिस्म में ज्वालामुखी सी आग है बाबा
ब्रह्मदेव बन्धु
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एक ग़ज़ल आप सभी की खिदमत में
1222 1222 1222 1222
मेरा अभिमान है भारत मेरा सम्मान है भारत।
धरा पर ईश का लगता हमे वरदान है भारत।।
जहाँ पर पूजते हम नारियों को मान कर देवी।
अहिल्या और सीता का सदा गुणगान है भारत।।
कभी होली कभी राखी कभी क्रिसमस यहाँ यारों।
दिवाली ईद पर मिलकर खिली मुस्कान है भारत।।
दया धीरज क्षमा को हम बनाकर शस्त्र लड़ते हैं।
बिना तलवार तोपों के बड़ा बलवान है भारत।।
मुकुट जिसका हिमाला है बनी है मेखला गंगा।
अखिल संसार का देखो नवल उत्थान है भारत।।
नज़र नापाक मत रखना जलाकर राख कर देंगे।
हमारी धड़कनों की सुरमयी ये तान है भारत।।
लहू से सींचकर वीरों ने जिसको सब्ज़ कर डाला।
शहीदों की अमर गाथा का ये उन्वान है भारत।।
यहाँ कण कण में पावनता बहे सौहार्द का दरिया।
मुसलमाँ और हिन्दू का ये हिंदुस्तान है भारत।।
उन्वान=शीर्षक
सब्ज़=हरा भरा
खेमचन्द"उदास"
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मुहब्बत की ग़ज़ल
इस तरह गुज़र जाए दिन चार मुहब्बत में,
दोज़ख भी सँवर जाए दिलदार मुहब्बत में।
प्यारेे वतन के सदके हर दिल से उठें ऐसे,
नफ़रत भी बदल जाए बस प्यार मुहब्बत में।
ये मज़हबों की रंजिश, ये जातियों के झगड़े,
छँट जाएँ ग़र्दिशें सब गुलजार मुहब्बत में।
आए ग़मों से खुश्बू खुसियों की सदा लेकर,
हर दर्द बने खुशदिल इजहार मुहब्बत में।
नाहक़ न पिसे गुर्बत अमीर सोहरतों में,
हर दिल से फ़र्ज़ का हो इकरार मुहब्बत में।
दरिया-ए-वतन में हों मौज़े-अमन रवाँ यूँ,
साहिल भी नज़र आए रू-दार मुहब्बत में।
हर दिल अज़ीज जैसे गुल सा खिलें चमन में,
बहरें ये नेकियाँ यूँ हर बार मुहब्बत में।
गोपाल शरण सिंह
(स्वरचित, स्वाधिकार सुरक्षित)
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नमस्कार दोस्तों 🙏🌺🌺
निगाह ए नाज़ उठाओ तो कोई बात बनें,
सुकूँ ए दिल को चुराओ तो कोई बात बनें,
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मेरे आँचल में बाँध दो वो कीमती लम्हें,
वक्त का साथ निभाओ तो कोई बात बने
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मैं नंगे पाँव भी चल कर के आऊँ वादा है,
बस इक आवाज लगाओ तो कोई बात बने
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शाम ढलते ही घेर लेते हो खयालों में,
कभी तुम सामने आओ तो कोई बात बने
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तुम्हारें कदमों में हमने जमीं बिछाई है,
आसमाँ तुम भी झुकाओ तो कोई बात बने,
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भटक रहे हैं जो गम की अंधेरी गलियों में
पता मंजिल का बताओ तो कोई बात बनें,
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भुला "मीरा"को,तुम तो चैन से सोते होगे,
याद मुझको भी न आओ तो कोई बात बने
कश्मीरा त्रिपाठी
************************************जब
जब उम्र के सफर का ठिकाना........
जब उम्र के सफर का ठिकाना नहीं पता,
सरपट क्यूँ दौड़ता है ज़माना?, नहीं पता।
काफी नहीं सुकूँ से काट लें ये ज़िन्दग़ी,
औरों को देख दिल क्यूँ जलाना?,नहीं पता।
देखा है झोपड़ी में खुशदिली मग़र यहाँ,
मायूस क्यूँ किले का तराना?, नहीं पता।
जो आज़ हर तूफान की हस्ती को तौल दें,
कब उनकी हक़ीक़त हो फ़साना, नहीं पता।
कहते हैं हमें शान से जी लो ये ज़िन्दग़ी,
वो जिनको अपनी शान का जाना नहीं पता।
है अपनी फक़ीरी में भी अमीर ये ज़िगर,
क्यूँकि हमें एहसान जताना नहीं पता।
आती हैं ग़र्दिशें भी कुछ करने अता हमें,
हमको किसी का दर्द बढा़ना नहीं पता।
गोपाल शरण सिंह
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1222 1222 1222 1222
गजल
महल टूटा जो ख्वाबों का तो फिर बिखरा नज़र आया ।
गुलिस्ताँ जिसको समझा था वही सहरा नजर आया ।।
बहुत सहमा है तब से मुल्क फिर खामोश है मंजर।
उतरते ही मुखौटा जब तेरा चेहरा नजर आया ।।
अजब क़ानून है इनका मिली है छूट रहजन को ।
मगर ईमानदारों पर बड़ा पहरा नज़र आया ।।
सियासत छीन लेती होनहारों के निवालों को ।
हमारा दर्द कब उनको यहाँ गहरा नजर आया ।।
वो भूँखा चीखता हक माँगता मरता रहा लेकिन ।
मेरे घर का कोई मुखिया मुझे बहरा नजर आया ।।
बहुत बेख़ौफ़ होकर अम्न का सौदा किया उसने ।
चमन में जब तलक अम्नो सुकूँ ठहरा नजर आया ।।
गरीबों पर शिकारी भेड़िया तब तब किया हमला ।
लहू का जब उसे कोई कहीं कतरा नज़र आया ।।
जिसे हर हाल में अपनी बड़ी कुर्सी बचानी है ।
वही जनता की नजरों से बहुत उतरा नज़र आया ।।
यहाँ तो लोग पढ़ लेते हैं साहब आपकी फ़ितरत ।
नये जुमलों में पब्लिक को बड़ा ख़तरा नज़र आया ।।
खुलेंगी दर परत दर साजिशें बेशक करप्शन की ।
कोई हाकिम तुम्हारी बात से मुकरा नज़र आया ।।
जो चर्चा छेड़ दी मैंने तुम्हारे कारनामे पर ।
जुबां पर दर्द लोगों का बहुत उभरा नज़र आया ।।
हजारों कोशिशों के बाद भी पहुँचा नहीं कोई ।
तुम्हारे दिल का तो रस्ता बहुत सँकरा नज़र आया ।।
-नवीन मणि त्रिपाठी
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ग़ज़ल--ज़मीं पर आसमाॅ॑ ठहरा हुआ है
ज़मीं पर आसमाॅ॑ ठहरा हुआ है
बहुत दिन से यही धोखा हुआ है
दिखाता ही नहीं पहले सी सूरत
मिज़ाजे- आइना बदला हुआ है
बहस में मुस्तकिल मशगूल हैं सब
सबब से हैं न वाक़िफ,क्या हुआ है
भरोसा ही नहीं है राहबर पर
तभी तो क़ाफ़ला बिखरा हुआ है
बड़ी आसानियां हैं मुश्किलों में
मिरा ये रास्ता देखा हुआ है
चलो बाज़ार में मालूम कर लें
अना का भाव कुछ सस्ता हुआ है
स्वरूप'अब लाज़िमी हैये ख़बर भी
कि अपनों में कोई रुसवा हुआ है
किसन स्वरूप
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2122 1122 1122 22
ग़ज़ल
शायरी फख्र से महफ़िल में जुबानी आई ।
आप आये तो ग़ज़ल में भी रवानी आई ।।
लौट आयीं हैं तुझे छू के हमारी नजरें ।
जब दरीचे पे तेरे धूप सुहानी आई ।।
पूँछ लेता है वो हर दर्द पुराना मुझसे ।
अब तलक मुझको कहाँ बात छुपानी आई ।।
तीर नजरों से चला कर के यहां छुप जाना ।
नींद मेरी भी तुझे खूब चुरानी आई ।।
मुद्दतों बाद जो गुजरा था गली से इकदिन ।
याद मुझको तेरी हर एक निशानी आई ।।
दर्द पूछा जो किसी ने तो जुबां पर उसकी ।
बारहा ज़ुल्म की तेरी वो कहानी आई ।।
क्यों करूँ शिकवा गिला तुमसे भला ऐ साकी ।
मेरे हिस्से में जो बोतल थी पुरानी आई ।।
रहजनों की है नज़र अब तो सँभल कर निकलो ।
बज़्म से लुट के कई बार सयानी आई ।।
हो गए खूब फ़ना ज़ुल्फ़ पर लाखों आशिक ।
जब भी चेहरों पे कहीं सुर्ख जवानी आई ।।
नवीन मणि त्रिपाठी
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एक खूबसूरत ग़ज़ल --- दिल का टूटा हुआ आईना रह गया
दिल का टूटा हुआ... आईना रह गया,
ख़त मुकम्मल लिखा,बस पता रह गया
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फेर कर के नजर..,रास्ते चल पडे,
वो फसाना वहीं पर थमा रह गया
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यादें दफना दीं सारी उसी घाट पर,
मेरे भीतर कहीं तू बचा रह गया
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बातें होती रहीं ....आपसे रात भर,
दर्द दिल का मगर अनकहा रह गया
🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳
दुश्मनी थी उजालों को उस रात से,
ख्वाब आँखों में आके रुका रह गया,
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जिस्म से रूह जैसा रहा साथ जब,
बीच में कैसे ये फासला रह गया,
🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳
है कयामत से बढ के सजा"मीरा"की,
और बाकी मेरे क्या ख़ुदा रह गया,
©कश्मीरा त्रिपाठी
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एक रूहानी ग़ज़ल-------------------
कभी मेरे नज़दीक आकर तो देखो
मोहब्बत की शम्मा जलाकर तो देखो
महक जायेंगी आसमां तक हवायें
ये आँचल हवा में उड़ाकर तो देखो
न जी पाओगे चैन से एक शब भी
मुझे अपने दिल से भुलाकर तो देखो
निगाहों से मेरी नहीं बच सकोगे
कोई बात मुझसे छुपाकर तो देखो
संवर जायेगा ज़िंदगी का गुलिस्तां
किसी को भी अपना बनाकर तो देखो
न हो गर यकीं प्यार पे मेरे तुमको
बुरे वक़्त पे आज़माकर तो देखो
यक़ीनन सुकूँ चैन "राही" मिलेगा
मुझे प्यार से तुम मनाकर तो देखो
"राही" भोजपुरी,जबलपुर मध्य प्रदेश ।
7987949078, 9893502414
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2212 2212 2212 2212
आसां कहाँ यह इश्क था मत पूछिए क्या क्या हुआ ।
हम देखते ही रह गए दिल का मकाँ जलता हुआ ।।
हैरान है पूरा नगर कुछ तो है तेरी भी ख़ता ।
आखिर मुहब्बत पर तेरी क्यों आजकल पहरा हुआ ।।
पूरी कसक तो रह गयी इस तिश्नगी के दौर में ।
लौटा तेरी महफ़िल से वो फिर हाथ को मलता हुआ ।।
दरिया से मिलने की तमन्ना खींच लायेगी उसे ।
बेशक़ समंदर आएगा साहिल तलक हंसता हुआ ।।
मुमकिन कहाँ है जख्म गिन पाना नये हालात में ।
घायल मिला है वह मुसाफ़िर वक्त का मारा हुआ ।।
यूँ ही ख़फ़ा क्यूँ हो गए किसने कहा कुछ आपको ।
क्यों मुस्कुराना आपका बेइंतिहा महँगा हुआ ।।
जब आसमाँ से चाँद उतरा था मेरे घर दफ़अतन ।
इस शह्र में इस बात का भी मुख़्तलिफ़ चर्चा हुआ ।।
जब सर उठाने हम चले खींचे गये तब पॉव ये ।
उनको गवारा था कहाँ देखें हमें उठता हुआ ।।
अब इस कफ़स के दायरे से खुद को तू आज़ाद कर।
कहता गया मुझसे परिंदा फिर कोई उड़ता हुआ ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
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एक ताजातरीन ग़ज़ल
212 212 212 212
जिंदगी रफ़्ता रफ़्ता पिघलती रही ।
आशिकी उम्र भर सिर्फ छलती रही ।।
देखते देखते हो गयी फिर सहर ।
बात ही बात में रात ढलती रही ।।
सुर्ख लब पर तबस्सुम तो आये मगर ।
कोई ख्वाहिश जुबाँ पर मचलती रही ।।
इक तरफ खाइयाँ इक तरफ थे कुएं ।
वो जवानी अदा से सँभलती रही ।।
जाम जब आँख से उसने छलका दिया ।
मैकशी बे अदब रात चलती रही ।।
देखकर अपनी महफ़िल में महबूब को।
पैरहन बेसबब वह बदलती रही ।।
जब से ठुकरा दिया हुस्न ने इश्क़ को ।
तिश्नगी उम्र भर हाथ मलती रही ।।
उस परिंदे की फितरत है उड़ना बहुत ।
बे वज्ह आपको बात खलती रही ।।
बच गए हम तो क़ातिल नज़र से सनम ।
मौत आंगन में आकर टहलती रही ।।
रेत मानिंद सहरा में ढूढा उसे ।
आरजू मुट्ठियों से फिसलती रही ।।
बाद मुद्दत के हमको हुई ये खबर ।
साजिशन तू गली से निकलती रही ।।
नवीन मणि त्रिपाठी
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एक प्यारी ताज़ातरीन ग़ज़ल
हेलो,
ज़िन्दगी...
जिससे मिलने में हमको ज़माने लगे,
मिलते ही वो हमें आज़माने लगे ।
मुद्दतों बाद सच याद आया बहुत,
झूठ के जब ठिकाने ठिकाने लगे ।
जब भी ख़ामोशियों से मुलाकात की,
कुछ परिंदे वहाँ चहचहाने लगे ।
नींद भी उड़ गई चैन भी उड़ गया,
ख़ुद से क्या हम बहाने बनाने लगे ।
बारहा आईना देखना शौक था,
उम्र ढलते ही नज़रें चुराने लगे ।
बंद वीरान घर खोलते ही हमें,
गुज़रे पल पास अपने बुलाने लगे ।
सोचता हूँ अंधेरों में घर के शजर,
क्यौं हमें देखकर जगमगाने लगे ।
यादों ने फिर रुलाया हमें यूँ 'असर',
रोते-रोते ही हम मुस्कराने लगे ।"
- सुधीर त्रिपाठी 'असर'
9935078721
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221 2121 1221 212
अच्छी लगी है आपकी तिरछी नज़र मुझे ।।
समझा गयी जो प्यार का ज़ेरो ज़बर मुझे ।।1
आये थे आप क्यूँ भला महफ़िल में बेनक़ाब ।
तब से सुकूँ न मिल सका शामो सहर मुझे ।।2
नज़दीकियों के बीच बहुत दूरियां मिलीं ।
करना पड़ा है उम्र भर लम्बा सफर मुझे ।।3
पत्ते भी साथ छोड़ के जाते खिंजां में हैं ।
रोता हुआ ये दर्द बताया शज़र मुझे ।।4
ये वक्त जश्न का है मेरी ईद आज है ।
जब मुद्दतों के बाद दिखा है क़मर मुझे ।।5
ख़ामोश हूँ मैं कब से ज़माने के दर्द पर ।
सुहबत थी आपकी जो हुआ है असर मुझे ।।6
किस किस पे मैं यक़ीन करूँ ऐ खुदा बता ।
ख़ंजर को जब चुभाए मेरा मोतबर मुझे ।।7
अपनी ख़ता पे आज वो चहरे उदास हैं ।।
करने चले थे शौक से जो बेकदर मुझे ।।8
किस्मत को राह खूब पता है मियाँ यहां ।
ले जाएगी उधर ही वो जाना जिधर मुझे ।।9
मुहमोड़ कर वो चल दिये आया बुरा जो वक्त ।
जो कह रहे थे गर्व से अपना जिग़र मुझे ।।10
इस मैकदे को छोड़ के तौबा करूँ सनम ।
मिल जाये थोड़ी आपसे इज्ज़त अगर मुझे ।।11
मत पूछिए हुजूऱ मेरा हाल चाल अब ।
रहती है आजकल कहाँ अपनी ख़बर मुझे ।।12
नवीन मणि त्रिपाठी
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एक ग़ज़ल
2122 2122 2122 212
कुछ नए अहसास दिल के गुलसिताँ हो जाएंगे ।
वस्ल पर मेरे तसव्वुर फिर जवाँ हो जायेंगे ।।
मुस्कुरा कर रूठ जाना क़ातिलाना वार था ।
क्या खबर थी आप भी दर्दे निहां हो जायेंगे ।।
मत करो चर्चा अभी वादा निभाने की यहाँ ।
वो अदा के साथ बेशक़ बेजुबाँ हो जायेंगे ।।
ये परिंदे एक दिन उड़ जाएंगे सब नछोड़कर ।
बाग़ में खाली बहुत से आशियाँ हो जायेंगे ।।
इश्क़ पर पर्दा न कीजै रोकिये मत चाहतें ।
एक दिन जज्बात तो खुलकर बयां हो जायेंगे ।।
रोज़ मौजें काट जातीं हैं यहां साहिल को अब ।
ये थपेड़े जिंदगी की दास्ताँ हो जाएंगे ।।
उम्र की दहलीज़ पर खिलने लगी कोई कली ।
देखना उसके हजारों पासवां हो जाएंगे ।।
ऐ परिंदे गर उड़ा तू दायरे को तोड़ कर ।
दूर तुझसे ये ज़मीन ओ आसमां हो जाएंगे ।।
उसकी फ़ितरत फिर तलाशेगी नया इक हमसफ़र।
डर है गायब आपके नामो निशां हो जाएंगे ।।
दिल में घर मैंने बनाया था मगर सोचा न था ।
उनकी ख्वाहिश में यहां इतने मकाँ हो जाएंगे ।।
कुछ तो रिंदों का रहा है जाम से भी वास्ता ।
बेसबब क्यों रिन्द उन पर मिह्रबां हो जायेंगे ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
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ज़मी पे हो तुम आसमां ढूँढ़ते हो
ज़मी पे हो तुम आसमां ढूँढ़ते हो,
कहाँ मैं छिपा तुम कहाँ ढूँढ़ते हो.
ये अल्फ़ाज़ तो बिक चुके हैं कभी के,
रखी अब जो गिरवी जुबां ढूँढ़ते हो.
परिंदा कभी भी नहीं मैं रहा हूँ,
हवाओं पे क्यूँ तुम निशां ढूँढ़ते हो.
ये सूखे दरख्तों की शाखें हैं इन पर,
कहाँ तुम मिरी दास्ताँ ढूँढ़ते हो.
जुबां बेचकर अपनी बाज़ार में तुम,
नया फिर कहाँ हमज़बाँ ढूँढ़ते हो.
तुम्हें रास आती है गर बुतपरस्ती,
मुझे दिल में तुम रायगाँ ढूँढ़ते हो.
ये अपना जहाँ तुमने ठुकरा दिया अब,
नया कौनसा तुम जहाँ ढूँढ़ते हो.
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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नमस्कार दोस्तों 🙏🌺🍁🌺
हाथ थामें जिंदगी ही हमसफर हो जायेगी,
इश्क में अब रूह भी धानी चुनर हो जायेगी
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
इंतजार ए वस्ल ये होगा खतम इक रोज जब,
जीस्त आब ए नूर से ही तर ब तर हो जायेगी,
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
आसमाँ में उड़ सकूं चाहत नही मेरी कभी,
आपके दिल की जमीं मेरी अगर हो जायेगी
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
पार कर आये हैं हम सेहराओं का लम्बा सफर,
बूंद इक पानी का दरिया औ नहर हो जायेगी
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
तुम न घबराना अंधेरों से तुम्हें मेरी कसम,
जुगनुओं के दम से ही अपनी सहर हो जायेगी
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
तुम बदल देना नहीं अब दोस्ती का काफिया,
बिन तुम्हारे जिंदगी ये बे बहर हो जायेगी
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
यूँ मुझे बेताब़ नजरों से न तुम देखा करो,
आतिशी एहसास की सबको खबर हो जायेगी
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
हम समेटे ही रहेंगे पाँव,चिंता मत करो,
एक छोटी सी है चादर पर गुजर हो जायेगी
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
जानती हूँ चाहने वाले तुम्हारे हैं बहुत,
फिर भी'मीरा'की कदर इक दिन तुम्हे हो जायेगी
कश्मीरा त्रिपाठी 'मीरा'
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पेश ए ख़िदमत एक ग़ज़ल
2122 2122 2122 212
बिन तेरे ये ज़िन्दगी यूँ दरबदर हो जाएगी।
आशिक़ी से बन्दगी फिर बेख़बर हो जाएगी।।
देख मत यूँ मुस्कुराकर आईने के सामने।
इश्क़ की अपने यहाँ सबको खबर हो जाएगी।।
ये खनकती चूड़ियाँ औ वस्ल की चाहत मेरी।
कश्मकश में देखना यूँ ही सहर हो जाएगी।।
ज़ुल्फ़ भीगी जब झटक कर बाम पर वो आ गए।
इश्क़ की आबो हवा अब पुरअसर हो जाएगी।।
लम्स ये तेरे लबों का गर मयस्सर हो मुझे।
मैकदे की मय यहाँ फिर बेअसर हो जाएगी।।
कुछ पुराने ख़त किताबों में मुझे जो मिल गए।
ज़ीस्त मेरी खुशबुओं से तरबतर हो जाएगी।।
ख़त्म तेरे नाम पर ओ नाम पर तेरे शुरू।
बिन तेरे ये नज़्म मेरी मुख़्तसर हो जाएगी।।
खेमचन्द"उदास"
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ताज़ातरीन गजल
सोच लेगा तू तो मैं तेरी रज़ा हो जाऊंगा.
मैं फकीरों की दुआ का सिलसिला हो जाऊंगा .
इक दफा कह दे कि तू है हान्सिले मंज़िल मेरी,
जिस्म से मैं रूह तक का रास्ता हो जाऊँगा.
बारगाहे इश्क की खुशबू हूँ मैं ,महसूस कर,
गर मुझे छूने कि ज़िद की तो हवा हो जाऊंगा.
जिस ग़ज़ल में तू मुसलसल बन के आयेगा रदीफ़ ,
उस गज़ल का मैं मुक्कमल काफ़िया हो जाऊंगा.
सूफ़ीयाना इश्क में है दिल फ़कीराना मेरा,
तुझमें शामिल अब किसी दिन शर्तिया हो जाऊंगा.
साँस गर लेती रही ,सांसों में मेरे बेखुदी ,
मैं फ़कीरों की मजारों का दिया हो जाऊंगा.
नूर तेरा आ रहा है मेरे चेहरे पे नज़र ,
इस से ज़्यादा अब खुदा मैं और क्या हो जाऊंगा.
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
****************************************
एक ग़ज़ल
न सफर की बात लिख्खूं न हज़र की बात लिख्खूं
मेरे दिल में आ रहा है मै दहर की बात लिख्खूं
نہ سفر کی بات لکھوں نہ حضر کی بات لکھوں
میرے دل میں آ رہا ہے مے دھر کی بات لکھوں
वो अश्कबार आंखें वो लहू लहू कलेजे
जिन्हें देख दिल हो घायल उस असर की बात लिख्खूं
وہ اشکبار آنکھیں وہ لہو لہو کلیجے
جنہے دیکھ دل ہو گھایل اس اسر کی بات لکھوں
वो बुझे बुझे से साए वो बुझी बुझी सी आंखें
बस रोटियां हैं मकसद उस घर की बात लिख्खूं
وہ بُجھے بُجھے سے سائے وہ بُجھی بُجھی سی آنکھیں
بس روٹیاں ہیں مقصد اس گھر کی بات لکھوں
जो जी मे आए करले तेरे हाथ में है डोरी
मेरी सांस तरबतर है मै किधर की बात लिख्खूं
جو جی میں آئے کرلے تیرے ہاتھ میں ہے دوری
میری سانس تربتر ہے مے کدھر کی بات لکھوں
वो तमामतर गुज़ारिश वो तमामतर सिफारिश
हुई खाक आरजूएं मै जिगर की बात लिख्खूं
وہ تمام تر گزارش وہ تمام تر سفارش
ھوئ خاک آرجوئے مے جگر کی بات لکھو
शायर गोरखपुरी
************************************"""
एक ग़ज़ल दोस्तों के हवाले----------------------
ख़त को मेरे हवा में उड़ाकर वो चल दिये
ख़ून-ए-जिगर के हर्फ़ मिटाकर वो चल दिये
कोई न मेरे पास था पानी की तलब थी
आये तो प्यास और बढ़ाकर वो चल दिये
कैसा था उनका प्यार ज़माना भी देख ले
राहों में मेरी खार बिछाकर वो चल दिये
सोचा था मिलेंगे तो होंगी प्यार की बातें
दिल में जो तल्खियाँ थीं सुनाकर वो चल दिये
दौलत थी मेरे पास तो करते थे सब सलाम
गर्दिश में मुझे आँख दिखाकर वो चल दिये
कुछ माँग न लूँ उनसे यही सोच के शायद
इक अजनबी से नज़रें बचाकर वो चल दिये
कितने अजीब लोग हैं "राही" न पूछिये
चाहा था जिनको दिल से रुलाकर वो चल दिये
"राही" भोजपुरी, जबलपुर मध्य प्रदेश ।
7987949078, 9893502414 ।
शुभ सवेरा मित्रों ।
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सुमन ढींगरा दुग्गल जी की कलम से----
एक ताज़ातरीन ग़ज़ल
कब कहाँ किस को दग़ा दे जानता कोई नहीं
ज़िंदगी सा बेमुरव्वत। बेवफा कोई नहीं
दिल कहीं पत्थर न हो जाए बस इतना याद रख
ये वो पत्थर है कि जिसको पूजता कोई नहीं
बेअसर हैं तेरी आहें उस पे तो हैरत न कर
पत्थरों का फूल से क्या वास्ता, कोई नहीं
भूल तो हर शख़्स से मुमकिन है हम हों आप हों
क्यूँ कि हम सब आदमी हैं देवता कोई नहीं
नफ़्सी नफ़्सी हर तरफ है कौन किस का है यहाँ
ए ख़ुदा तेरे सिवा अब आसरा कोई नहीं
बेखुदी का राज़ बतलाते हैं तुम को आज हम
हम ने उस को पा लिया जिस का पता कोई नहीं
दूर रहता है निगाहों से मेरी फिर भी 'सुमन'
ज़हन ओ दिल में वो ही वो है दूसरा कोई नहीं
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माॅ॑
जहाॅ॑ माॅ॑ की दुआएॅ॑ हैं वहाॅ॑ डर हो नहीं सकता
ख़ुदा तो है ख़ुदा,माॅ॑ के बराबर हो नहीं सकता
नहीं मालूम हो रस्ता सफर का और मंज़िल भी
भले हो क़ाफ़ला-सालार, रहबर हो नहीं सकता
रहे ,बस रह लिये ता-उम्र यूॅ॑ ही कुछ मकानों में
मुहब्बत के बिना कोई मकाॅ॑,घर हो नहीं सकता
चलो, इस उम्र में अब आइने से दोस्ती छोड़ें
जवानी के दिनों में था जो मंज़र हो नहीं सकता
हमारी ज़िन्दगी हमको हमेशा ये सिखाती है
मिलें मजलूम की आहें,सिकंदर हो नहीं सकता
जिसे माॅ॑-बाप की अपने दुआ हासिल नहीं होती
किसी औलाद को रुतबा मयस्सर हो नहीं सकता
हवेली हो शहर में और सब सामान, सुविधाएॅ॑
मगर ये गाॅ॑व के घर के बराबर हो नहीं सकता
किशन स्वरूप
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पेश है एक ताज़ातरीन ग़ज़ल----------------
आग दिल में है लगी इसको बुझायें कैसे,
जिससे उम्मीद थी रूठा है मनायें कैसे।।
हम दुखी होते हैं तो रोती हैं आँखें उसकी,
ऐसे हमदर्द को बोलो तो भुलायें कैसे।।।।
ये तो सच है कि वो हमको ही चाहता है फक़त,
वो मगर दूर है फिर प्यार जतायें कैसे।।।।
बाद मुद्दत के सजाई है प्यार की महफ़िल,
ज़िद्दी तूफ़ान में अब शम्मा जलायें कैसे।।
एक अर्से से हमें नींद नहीं आई है,
कोई बतलाये उसे ख़्वाब में लायें कैसे।
है नदी पार की बस्ती में बसेरा उसका,
कोई जरिया नहीं जाने का तो जायें कैसे।
अब उसे हम पे भरोसा ही नहीं है "राही"
उससे अब दिल की कोई बात बतायें कैसे।
"राही" भोजपुरी, जबलपुर मध्य प्रदेश ।
7987949078, 9893502414
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एक संज़ीदा ग़ज़ल
आज दरिया चली ख़ुद लहर ढूढ़ने,
तल्खियों में बसा खुश शहर ढूढ़ने।
आज आबो - हवा है निराली बहुत,
जिन्दगी जब चली खुद ज़हर ढूढ़ने।
सब मसीहा अमन के बने फिर रहे,
है चला जब अमन ख़ुद बशर ढूढने।
ख़्वाब पाले, बढ़े तिस्नग़ी से सजे,
रूह को दे सुकूँ वो दहर ढूढ़ने।
दौर है बे-अदब शानो-शौक़त का ये,
सादगी में चले सब कहर ढूढ़ने।
आदमी,आदमी के गले मिल रहा,
"अपने काटे का ज़िन्दा असर"ढूढ़ने।
तोड़ती साँस अब सादगी कह रही,
दफ़्न हो मैं चली खुश-ज़िगर ढूढ़ने।
Gopal S Singh
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ग़ज़ल
जब उठी आवाज मुफ़्लिश की वो दबवाई गयी ।
हर दफा झूठी फ़क़त तस्बीर दिखलाई गयी ।
मुश्किलें आसान हैं दौलत के दम पर इस कदर
जेब है भारी उसे हर चीज दिलवायी गयी ।
पिस रही है अब गरीबी कुछ सियाशी पाट में
मज़हबी, क़ौमी सवालों में ये उलझाई गयी।
एक चिनगारी जो भड़की आग बढ़ती ही गयी
हुक्मरानों तक बजा फ़रियाद पहुँचाई गयी।
सूरतें बदलें 'सुमित' तब तो बने कुछ बात भी
अब तलक वादों की बस आवाज सुनवाई गयी।
हरिशंकर पाण्डेय 'सुमित'
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एक ताज़ातरीन ग़ज़ल
जनाज़ा किसी का उठा ही नहीं है,
मरा कौन मुझमें पता ही नहीं है.
मुझे खो दिया और लगा उसको ऐसा,
कि जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं है.
ये कैसी इबादत ये कैसी नमाज़ें,
ज़ुबां पर किसी के दुआ ही नहीं है.
चले जिस्म से रूह तक तो लगा ये,
बिछुड़ वो गया जो मिला ही नहीं है.
यूँ कहने को हम घर से चल तो दिए हैं,
मगर जिस तरफ़ रास्ता ही नहीं है.
ख़ताओं की वो भी सज़ा दे रहे हैं,
गुनाहों के जिनकी सज़ा ही नहीं है.
पसीने से मैं अपने वो लिख रहा हूँ,
जो क़िस्मत में मेरे लिखा ही नहीं है.
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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मनोज राठोर 'मनुज' जी की कलम से.....
कह दो वफ़ा कुबूल है क्यों कश्मकश में हो
बाकी तो सब फिजूल है क्यों कश्मकश में हो
जिस पर तुम्हें गुरुर तुम्हारा बदन नहीं
यह तो जमीं की धूल है क्यों कशमकश में हो
मिलता उसे ही कुछ है जो खोता है कुछ यहां
जग का यही उसूल है क्यों कशमकश में हो
उजड़े हुए चमन से जो खुशबू सी आ रही
जिंदा कोई तो फूल है क्यों कशमकश में हो
दे दो सजा या छोड़ दो उल्फ़त तो की मनुज
इतनी सी अपनी भूल है क्यों कशमकश में हो
मनोज राठौर मनुज
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एक ताज़ातरीन ग़ज़ल आपके हवाले---------
ख़ुद किसी की याद में दिल को जलाकर देखिये,
और फिर उसके लिये जग को भुलाकर देखिये।
पुरसुकूं दिल को मिलेगा काम ये जो कर दिये,
रो रहा बच्चा कोई उसको हँसाकर देखिये।।।
उनकी शोहबत में मिलेगी आप को शोहरत ज़रूर,
बस किसी महफ़िल में उनको तो बुलाकर देखिये।
राह-ए-उल्फ़त में फक़त गुल ही नहीं काँटे भी हैं,
आज़माना हो,किसी से दिल लगाकर देखिये।।
आप को भी चाहने वाले मिलेंगे बेशुमार,
बस किसी के दर्द में आँसू बहाकर देखिये।
दूर रहकर दिलरुबा से चैन किसको है मिला,
है नहीं गर चे यकीं बस आज़माकर देखिये।
प्यार करने का अगर करते हैं दावा आप तो,
लाख मुश्किल हो तो क्या फिर भी निभाकर देखिये।
आप का ही तज़किरा होगा शहर में तरफ़,
इक किसी मज़लूम को अपना बनाकर देखिये।
उम्र भर "राही" दवावों से रहेंगे दूर आप,
सादगी से ज़िन्दगी अपनी बिताकर देखिये।
"राही" भोजपुरीं, जबलपुर मध्य प्रदेश ।
7987949078, 9893502414
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एक ताज़ातरीन ग़ज़ल---------------
ये दुनिया मुझे आज़माने लगी है,
बुलंदी से नीचे गिराने लगी है।
कभी टूट कर प्यार मुझसे किया था,
मगर क्यों वो अब दूर जाने लगी है।।
खुले दिल से मिलते रहे थे मगर, वो,
कई राज़ दिल के छुपाने लगी है।।।।
नहीं देख पाती थी जो मेरे आँसू,
वो हर पल मुझे अब रुलाने लगी है।
लिपट कर जो साये से रहती थी हरदम,
वो मिलने से नज़रें चुराने लगी है।।
जिसे तीरगी रास आती नहीं थी,
चराग़ों को क्यों अब बुझाने लगी है।
बहुत साफ थे पैरहन जिसके "राही"
वो दामन में काँटे उगाने लगी है।।
"राही" भोजपुरीं,जबलपुर मध्य प्रदेश ।
7987949078, 9893502414 ।
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एक नई ग़ज़ल सूफी सुरेश चतुर्वेदी जी
की कलम से
मेरी गहराई में बन कर समंदर झांकता है,
न जाने कौन है जो मेरे अन्दर झांकता है.
ख़ुद अपने आप से डर कर सिमट जाता है ख़ुद में,
किसी भी आईने में जब भी पत्थर झांकता है.
बदन में कर्बला बन कर कोई लेता है साँसें ,
लहू में जब कहीं भी प्यासा ख़जर झांकता है.
रहा करते हैं दोनों साथ और दोनों हैं ख़ाली,
यही बस सोच कर मुझमें मेरा घर झांकता है.
मुझे बचपन से माँ कहती रही है जाने क्यूँ ये ,
मेरी ऐडी से से इक छोटा सा नश्तर झांकता है.[नश्तर=कांटा]
मेरे दिल में यक़ीनन ही है रोशनदान कोई,
किसी की याद का जिससे कबूतर झांकता है.
उसे दिखतीं हैं चारों ही तरफ़ लाशें ही लाशें ,
कभी ख़ुद में ही जब कोई सितमगर झांकता है.
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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ग़ज़ल
*
कभी तन्हाई में जब आँख छलक जाती है।
उसके दर तक मेरे अश्कों की महक जाती है।
*
थाम के दिल को बिखर जाते हैं दीवाने भी,
ख़्वाब छूकर जो कभी रात सनक जाती है।
*
कुछ मेरे ग़म का भी लगता है हवाओं पे असर,
हिचकियाँ सुनके वो आवाज़ सिसक जाती है।
*
रु ए रोशन से हटाता नहीं नज़रें कोई,
सर से चुनरी तेरी जिस वक़्त सरक जाती है।
*
मेरे एहसास के हाथों में क़लम आते ही,
मेरे जज़्बात की गागर भी छलक जाती है।
*
जब कभी इसको ख़बर लगती है शायर हूँ मैं,
जाने क्या क्या मेरी दुनिया मुझे बक जाती है।
*
याद जिस वक़्त उतरती है तहों में "फ़रहत"
प्यास काँटे की तरह दिल में कसक जाती है।
K R Kaushal Farhat
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पेश है एक और ताज़ातरीन ग़ज़ल---------
आये जो आप घर मेरे मौसम बदल गया,
यह देख दुश्मनों का जनाजा निकल गया।
जो शक़ की निगाहों से मुझे देखते रहे,
उनको मेरे ही सामने कोई कुचल गया।
ग़ैरों की ख़ुशी देख के सदमें में जो रहा,
बेवक़्त मर के आख़िरस दुनिया से कल गया।
शोहरत भी उसके हाथ में आकर चली गई,
हाथी किसी ढलान से गोया फिसल गया।
सूरज भी था शबाब पर जलता रहा बदन,
ऐसी लगी वो आग नगर सारा जल गया।
उस ज़लज़ले के बाद का मंज़र तो देखिये,
सहरा जो जल रहा था कल दरिया में ढल गया।
चाहा न जिसको प्यार से मैंने कभी " राही "
उस नाज़नीं को देख के दिल क्यों फिसल गया।
"राही" भोजपुरीं, जबलपुर मध्य प्रदेश ।
7987949078, 9893502414
**************************************
मेरी कलम से एक ग़ज़ल जिंदगी की.......
खुशी के बुलबुले हैं कुछ, गमों का बोलबाला है
हँसी के हौसले ने आज तक हमको सम्हाला है
कई उम्मीद के बादल यहाँ छा कर नहीं बरसे
जमीं सब आस की प्यासी पड़ा सूखे से पाला है
बहुत मजबूर है ईमान अब सुनता नहीं कोई
खड़ा है सच सरे महफ़िल मगर होठो पे ताला है
नहीं कोई बचा अबतक खुदा की उस अदालत से
खरा इंसाफ है उसका तरीका भी निराला है
करम के साथ ही अंजाम है नेकी बदी का भी
इसी दिल मे खुदा का घर यही मंदिर शिवाला है
हरिशंकर पाण्डेय
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पेश है एक नाज़ुक ग़ज़ल---
""""""""""""""""""""""""""""""""""
सुनो आज वादा निभाने का दिन है,
नई शाख पे गुल खिलाने का दिन है।
शब-ए-वस्ल में यूँ न शर्माओ जानम,
ये दिल खोलकर गुदगुदाने का दिन है।
जवां जोश में पाँव फिसले हों शायद,
उसे आज अब भूल जाने का दिन है।
जो ग़ज़लें क़िताबों में हैं क़ैद अब तक,
उन्है बज़्म में गुनगुनाने का दिन है।।
मोहब्बत के गौहर जो पाये हैं हमने,
उन्हें अपने दिल में छुपाने का दिन है।
मुकम्मल है कितनी मोहब्बत ये अपनी,
इसे आज ही आज़माने का दिन है।।
जहाँ तुम मिले थे डगर में अकेले,
वहीं"राही"घर इक बनाने का दिन है।
"राही" भोजपुरी,जबलपुर मध्य प्रदेश
7987949078,9893502414
💐💐💐💐💐ग़ज़ल💐💐💐💐💐
गीत के सुर को सजा दे , साज ऐसा चाहिए
दिल तलक पहुँचे सदा अल्फ़ाज़ ऐसा चाहिए
कुछ छिपायें कुछ बतायें, फितरतें इंसान की
जब खुले खुशियाँ बिखेरे , "राज " ऐसा चाहिए
राह खुद अपनी बनाये फिर सजाकर मंज़िलें
रुख हवा का मोड़ दे 'अंदाज़' ऐसा चाहिए
जीत ले हर एक बाज़ी हौसले के जोर से
नाज़ हो अंजाम को, "आगाज़" ऐसा चाहिए
जो हटे पीछे कभी ना, जंग में डटकर लड़े
वीरता भी हो फिदा , "ज़ांबाज " ऐसा चाहिए
हरिशंकर पाण्डेय
**************ग़ज़ल*************
गम के साये से घिरे दर्द छिपाऊँ कैसे!
ज़ख्म सीने में दबा, तुमको रिझाऊँ कैसे!!
तुम्हारी हर वफा का मैं सिला न दे पाया
मेरे ही दर्द से , तुमको मैं मिलाऊँ कैसे !!
अश्क़ गमगीन हो पलकों में छिपे बैठे हैं,
छलक जायें न कहीं , सामने आऊँ कैसे !
तुम मेरा हाल भी नज़रों से भाँप लेती हो ,
एक चेहरे पर "नया चेहरा" लगाऊँ कैसे!!
मैंने सोचा था, बहुत दूर चला जाऊँ पर,
तुम न भूलोगी मुझे, मै भी भूलाऊँ कैसे!!
ये आरजू है मेरी, राह कुछ निकल आए,
एक खुशियों का चमन आज सजाऊँ कैसे!!
हरिशंकर पाण्डेय
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एक ताज़ातरीन ग़ज़ल------
""""""""""""""""""""""""
ये चिलमन में चेहरा छुपाओ न ऐसे,
मिरे दिल की धड़कन बढ़ाओ न ऐसे।
तुम्हें भर नज़र देखना चाहता हूँ,
नज़र फेरकर अब सताओ न ऐसे।
यही मेरी चाहत है दिल में रहो तुम,
किसी और से दिल लगाओ न ऐसे।
जो उल्फ़त के दीपक जलाये थे मैंने,
हवा दे के उसको बुझाओ न ऐसे।।
सफ़र है कठिन दूर मंज़िल है अपनी,
सरे राह काँटे। बिछाओ न ऐसे।।
बहुत आज़माया है लोगों ने मुझको,
मुझे और तुम आज़माओ न ऐसे।।
मोहब्बत अगर तुमको मुझसे है "राही"
तो बाहें झटक करके जाओ न ऐसे।।
"राही" भोजपुरी, जबलपुर मध्य प्रदेश ।
7987949078, 9893502414
*************************************"
एक ग़ज़ल
"ये ज़मीं और आस्माँ हूँ मैं,
बेख़बर हूँ मगर कहाँ हूँ मैं ।
जिनमें हर सू उजाले रहते हैं,
उन अँधेरों का कारवाँ हूँ मैं ।
जिसमें कुछ वक़्त ही फ़क़त ठहरा,
भूला-बिसरा वो आशियाँ हूँ मैं ।
मुझसे क्यों दूर-दूर रहती है,
ज़िन्दगी तेरी दास्ताँ हूँ मैं ।
वक़्त से चोट खाए ज़ख़्मों का,
मुस्कराता हुआ निशाँ हूँ gb मैं ।
इक जगह होता गर बता देता,
कौन जाने कहाँ-कहाँ हूँ मैं ।
ज़ीस्त की क़ैद में 'असर' सिमटा,
सिर्फ़ उठता हुआ धुआँ हूँ मैं ।"
- सुधीर त्रिपाठी 'असर'
9935078721
***************************************
नई गज़ल
यही सवाल अब .... उलझा, मेरे फसाने मे l
कम थी उल्फत..क्या मेरे दिल के आशियाने में !
गर खता थी कुछ हमारी तो बस बता देते ,
हम तो माहिर हैं, किसी भी तरह मनाने में ..!
उनकी यादें भी वफादार हैं , बसी दिल में,
कौन कहता है , वफ़ा है नहीं ज़माने में !
अब तो तूफान का भी खौफ नहीं है मुझको ,
बुझी है लौ चिराग की गरीबखाने में ....!
तुम्हारी रूठने की यह अदा भी है कातिल,
क्या मिलेगा तुम्हे ऐसे हमें सताने में ..
मगर यकीन है, दावा है, अपनी चाहत पर,
तुम्हारे हाँथ बढेंगे , दिये जलाने में ....
हरिशंकर पाण्डेय
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नई ग़ज़ल
मिलेगा मर्तबा , हस्ती को बचाये रखना !
सफर के वास्ते, कश्ती को सजाये रखना !
कहीं तूफाँ तुम्हारा रास्ता क्या रोकेगा ,
अपनी यारी यूँ समुन्दर से बनाये रखना !
जतन से ध्यान से रिश्तों को सम्हाले रखना,
गुलों से प्यार के गुलशन को सजाये रखना!
बड़ी है अहमियत , किरदार की यकीं मानो,
बड़ा अजीज है , हर वक़्त निभाये रखना !
हुनर सफर में बुलंदी तलाश ले फिर भी ,
रहे गरूर ना नजरों को झुकाये रखना !
भले हो सामना हर बार इम्तिहाँ से सुनो ,
अपनी तालीम को जेहन में बसाये रखना !
वतन की मिट्टी के अनमोल नगीने बनकर ,
इसकी तहजीब और शोहरत को उठाये रखना !
हरिशंकर पाण्डेय
********************************
ग़ज़ल संग्रह "चले भी आओ"से एक ग़ज़ल---
"""""""""""""""""""""""""""""""
तुम्हारा शर्म से नज़रें झुकाना याद है हमको,
वो दिलकश प्यार के नग़में सुनाना याद है हमको।
तुम्हारी जिन अदाओं ने हमें शायर बनाया है,
मुसल्सल हर अदा वो क़ातिलाना याद है हमको।
कली से फूल बनकर तुमने जब अंगड़ाइयाँ ली थी,
घटा में बिजलियों का कौंध जाना याद है हमको।
झलक पाकर तुम्हारी खिल उठे जब फूल सहरा में,
परिंदों का मिलन के गीत गाना याद है हमको।।।
तुम्हारा ज़ुल्फ़ लहराना वो दिन में रात हो जाना,
सितारों का फ़लक़ पे झिलमिलाना याद है हमको।
मज़ा आया तुम्हारे गेसुओं से जब हुई बारिश,
उन्हीं रिमझिम फुहारों में नहाना याद है हमको।
खिला चेहरा तुम्हारा देखकर उस चाँद का "राही"
दुबक कर बादलों में मुँह छुपाना याद है हमको।
"राही" भोजपुरीं,जबलपुर मध्य प्रदेश
7987949078, 9893502414
*************************************
**ग़ज़ल**
गम के साये से घिरे, दर्द छिपाऊँ कैसे!
ज़ख्म सीने में दबा, तुमको रिझाऊँ कैसे!!
तुम्हारी ही वफा वाजिब , कसूर मेरा था ,
अपने इस दर्द से , तुमको मैं मिलाऊँ कैसे !
अश्क़ गमगीन हो पलकों में छिपे हैं जाकर ,
छलक जायें न कहीं , सामने जाऊँ कैसे !
तुम मेरा हाल यूँ ,नज़रों से भाँप लेती हो ,
एक चेहरे पर "नया चेहरा" लगाऊँ कैसे!
ये आरजू है मेरी, राह कुछ निकल आए,
एक खुशियों का चमन आज सजाऊँ कैसे!!
हरिशंकर पाण्डेय
* ***************************************
---------------- एक ग़ज़ल------------
दफ़अतन दर्द-ए-जिगर कोई बढ़ाकर चल दिया,
बिन धुआँ बिन आग के तनमन जलाकर चल दिया।
कुछ ग़लत करते जो चारागर को पकड़ी भीड़ ने,
शर्म से वो कुछ न बोला सर झुकाकर चल दिया।
मुल्क के नामी अदीबों से सजी उस बज़्म में,
एक बच्चा आईना सबको दिखाकर चल दिया।
वो फ़रिश्ता, रौशनी जिसने न देखी थी कभी,
जाते-जाते नूर की दौलत लुटाकर चल दिया।
मैंने इक शम्मा जलाई थी अमन के वास्ते,
अम्न का दुश्मन कोई आया बुझाकर चल दिया।
है जो जन्नत सरज़मीं का वादी-ए-कश्मीर है,
कौन उसमें आग नफ़रत की लगाकर चल दिया।
जब भरी हुंकार "राही" भारती के लाल ने,
जानी दुश्मन सरहदों से तिलमिलाकर चल दिया।
"राही" भोजपुरी, जबलपुर मध्य प्रदेश ।
7987949078,9893502414
***********************************"
फासला दरमियाँ रखा ही नहीं,
यार फिर भी हमें मिला ही नहीं.
एक बच्चा है मुझमें ऐसा भी,
उम्र भर जो कभी हंसा ही नहीं.
इन दरख्तों के झुलसे जिस्मों पर,
अबके मौसम ने कुछ लिखा ही नहीं.
प्यासे कूए ने नेकियों से कहा,
नेकियों का सिला मिला ही नहीं.
मेरी ग़ज़लें तो माँ के जैसी हैं,
जिनके होठों पे बददुआ ही नहीं.
एक लम्हा भी चैन से न कटा,
उम्र कैसे कटी पता ही नहीं.
उस से बिछड़ा नहीं घड़ी भर भी ,
उम्र भर जो मेरा हुआ ही नहीं.
उसकी ग़ज़लों का ऐसा शेर हूँ मैं,
जो मुक्कमल कभी हुआ ही नहीं.
मुक़म्मल =पूरा
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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----ग़ज़ल---
मुझे ज़िंदगी रास आई न तुम बिन,
गुलों की ये ख़ुशबू भी भाई न तुम बिन।
धरा तप रही थी बदन जल रहा था,
ये सावन की रिमझिम सुहाई न तुम बिन।
कई साल गुज़रे हैं तन्हाईयों में,
कभी कोई महफ़िल सजाई न तुम बिन।
कमाई की राहें बहुत थीं नज़र में,
मगर कोई जोखिम उठाई न तुम बिन।
जगाई थी जो रूह में प्यास तुमने,
किसी ने भी उसको बुझाई न तुम बिन।
किसी ने भी मंदिर का खोला न ताला,
किसी ने भी शम्मा जलाई न तुम बिन।
बहुत हैं यहाँ चाहने वाले "राही",
किसी को मेरी याद आई न तुम बिन।
"राही" भोजपुरीं, जबलपुर मध्य प्रदेश ।
7987949078, 9893502414
*********************************
एक नज़्म ( कविता )
☆कहर इक तूफान का, कैसी तबाही दे गया☆
कहर इक तूफान का, कैसी "तबाही" दे गया I
आशियाना हर "परिन्दे" का उड़ा कर ले गया
जड़ से उखड़े कुछ दरख्तों का मिटा नामोनिशां ,
अब फिज़ा वीरान लगती , दर्द कैसा दे गया !
काल की आँधी थी वो उसने किया बर्बाद सब,
मौत का तांडव मचाकर पीर भारी दे गया।
जिनके अपने थे गए अब लौटना मुमकिन नहीं,
अश्क़ का सैलाब देकर सारी खुशियाँ ले गया।
अब तो कलियों और फूलों की महक फीकी हुई ,
सब तितलियों में उदाशी, जोश गुलशन से गया !
इक हवा के तेज झोंके से सहम जाते हैं अब,
खूब ज़ालिम था वो तूफां, खौफ दिल में दे गया !
सरजमी पर लौट आये सब कहाँ रुकते भला
अब परिन्दों को बनाना है नया इक आशियाँ !
हरिशंकर पाण्डेय-हरिशंकर-9967690881
hppandey59@gmail.com
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एक ताज़ा ग़ज़ल-------------------
आज़माना चाहते हो आज़माकर देख लो,
मैं संभलता ही रहूँगा तुम गिराकर देख लो।
मैं तसव्वुर से तुम्हारे जा न पाउँगा कभी,
कोशिशें कर लो मुसल्सल औ भुलाकर देख लो।
टूट जाऊँ मैं ज़रा सी बात पर मुम्किन नही,
हो यकीं तुमको न,घर मेरा जलाकर देख लो।
पायलें छम छम करेंगी जब पढूँगा मैं ग़ज़ल,
चाँदनी शब में सनम महफ़िल सजाकर देख लो।
तुम अकेले रह न पाओगे ये दावा है मेरा,
कुछ दिनों को घर अलग अपना बसाकर देख लो।
चाँद धरती पर उतर आयेगा काली रात में,
तुम ज़रा चेहरे से ये चिलमन हटाकर देख लो।
आग लग जायेगी पानी में है "राही" को यकीं,
आज बेपर्दा नदी में तुम नहा कर देख लो।।
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प्यार करोगे प्यार मिलेगा,
अपनों का संसार मिलेगा ।
दिल से फ़र्ज़ निभाओगे जब,
जो चाहो अधिकार मिलेगा।।
जब अवाम का काम करोगे,
फूलों का तब हार मिलेगा।।
सोच लूट की छोड़ो वार्ना,
हर रस्ते पर खार मिलेगा।
चाल ढाल बदलो ख़ुद अपनी,
तभी तुम्हें दिलदार मिलेगा।।
जिसे खोजते हो बरसों से,
वो दरिया के पार मिलेगा।
महफ़िल तभी सजेगी "राही"
जब कोई फ़नकार मिलेगा।
"राही" भोजपुरी , जबलपुर मध्य प्रदेश ।
07987949078, 09893502414
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एक ग़ज़ल श्री अनिल कुमार राही की कलम से
ज़रा-सी बात पर हो तुम ख़फा अच्छा नहीं लगता।
जुदा होकर रहे फिर गमज़दा अच्छा नहीं लगता।।
बहारें चूमती दामन न जाओ छोड़कर मुझको।
तुम्हारे बिन कोई मौसम जरा अच्छा नहीं लगता।।
हुए मशहूर हम इतने ज़माने की नज़र हम पर।
तुम्हे कोई कहे अब बेवफा अच्छा नहीं लगता।।
खुदाया रूठ जाये तो कसम रब की करूँ सजदा।
जुनूने इश़क में ये आसरा अच्छा नहीं लगता।।
मुहब्बत पर भरोसा कर लिए हैं आँख में आँसू।
बगावत का सलीका यूँ डरा अच्छा नहीं लगता।।
जुड़ी है हर खुशी तुमसे हकीक़त यह खुदा जाने।
नुमाॅया हो वफ़ा यह फलसफा अच्छा नहीं लगता।।
तुम्हारा साथ था राही खुदाई साथ थी अपने।
मगर अब प्यार का वो तज़किरा अच्छा नहीं लगता।।
(अनिल कुमार राही)